राजेश त्रिपाठी
बहुत लफ्फाजी हुई, अब बात हो कुछ काम की।
शोहरतों से घिर गये हो, फिक्र अपने नाम की।।
वक्त ऐसा ही रहेगा, सोचते हो तुम अभी।
खुशनुमा यह सुबह लगती, नहीं चिंता शाम की।।
जलती बुझती बत्तियों वाली , चढ़ो तुम गाड़ियां।
शाम होते याद आती है, छलकते जाम की।।
लोग भूखों मर रहे, तुम होटलों में लंच लो।
गैर बिल भरते रहें, चिंता नहीं है दाम की।।
काम क्या करना है, वह तो खुद बखुद है हो रहा।
तुम बड़े आका कहाते, यह घड़ी आराम की।।
रोटियां महंगी हुई हैं, लोग फाका कर रहे।
घरभरन तुमको कहें, आदत है खासो-ओ- आम की।।
लोग अच्छों को बुरा कहते हैं, यह दस्तूर है।
इसलिए तुम फिक्र करते हो, नहीं बदनाम की।।
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